नित स्वप्निल संसार सजाती,
नेह-निमंत्रण देकर आती।
चॉद-सितारे भर ऑचल में,
मलयज के संग गीत सुनाती।टेक।
मन-मन्दिर में प्रेम आरती,
मुदित विभावरि सदा सुनाती।
श्रम से चूर-चूर तन होता,
उच्छ्वासों का दरपन होता।
नित जीवन की आपा-धापी,
स्वेद सूख कर चन्दन होता।
बन लजवन्ती सॉझ सुरमई ,
विभावरी जन-मन हरषाती।
मलयज के संग गीत सुनाती।1।
हार-जीत की धूप-छॉव में,
धूल-धूसरित नगर-गॉव में।
मरुस्थल सी प्यास प्यार की,
लाल महावर सजे पॉव में।
नई नवेली की धड़कन में,
अनवरत मुखर वंशी बजती,
बुढ़िया की कुटिया में आकर,
विभावरी प्रिय साज सजाती।
मलयज के संग गीत सुनाती।2।
देती जग को शरण स्नेह से,
करती सिंचित करुण मेह से।
हारे-थके मनुज की पीड़ा,
हर कर देती खुशी गेह से।
बन जाती विश्राम स्थली,
सकल सृष्टि चेतन मन की,
जीवन दान जगत को देती,
नवल भोर भिनसार कराती।
मलयज के संग गीत सुनाती।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश
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